हस्तिनापुर साम्राज्य के सबसे महत्वपूर्ण मंत्री विदुर के कहने परवा बागपत के खाण्ड़व वन से वार्णावर्त नगर तक बनायी गयी थी सुरंग
उस समय के प्रसिद्ध महादेव का मेला लगने से काफी समय पहले ही विदुर ने शुरू करवा दिया गया था गुप्त सुरंग का निर्माण
बागपत,( विवेक जैन): प्राचीन काल में वर्तमान बागपत के यमुना नदी के क्षेत्र को खाण्ड़व वन के नाम से जाना जाता था। यह वन अत्यन्त विशाल और घना था। इस क्षेत्र में बाघों और जंगली जानवरों की भरमार थी। अनेकों सिद्ध साधु-संत व ऋषि-मुनि यमुना के किनारे कुटी व आश्रम बनाकर तपस्या किया करते थे।
बागपत के खाण्ड़व वन में स्थित प्राचीन रहस्यमयी गुफा के बारे में बताया जाता है कि इस स्थान पर सिद्धियां प्राप्त ऋषि का आश्रम था। दुर्याेधन ने पांडवों को वार्णावर्त नगर (वर्तमान बरनावा) के प्रसिद्ध महादेव के मेले में जल्द आग पकड़ने वाली लाख का महल बनाकर जलाकर मारने की योजना बनायी। इस षड़यंत्र का हस्तिनापुर साम्राज्य के मंत्री और पांड़वों के हितैषी विदुर को गुप्तचरों के माध्यम से काफी समय पहले ही पता चल गया। एक और दुर्याेधन के कहने पर पुरोचन नाम के मंत्री ने वार्णावर्त नगर में जल्द आग पकड़ने वाली लाख से पांड़वों के रहने के लिये महल बनाने का कार्य शुरू किया तो दूसरी और धने खाण्ड़व वन में ऋषि के आश्रम (वर्तमान में बाबा बुद्धराम की कुटी) से मंत्री विदुर ने एक गुप्त सुरंग, वार्णावर्त नगर में बनाये जा रहे लाख के महल तक बनाने का कार्य अपने एक विश्वस्त को सौंपा, जिसको कारीगर ने समय के अन्दर बना दिया। बताया जाता है कि सारी योजना को इतना गुप्त रखा गया कि विदुर ने पितामह भीष्म तक को भी इसकी भनक नही लगने दी। दुर्याेधन के गुप्तचर उस समय के सबसे सफल गुप्तचर माने जाते थे, लेकिन विदुर नीति के आगे उनकी एक भी नही चली
बागपत से बरनावा तक बनी इस सुरंग को कुछ स्थानों पर जीवनदायिनी वायु के लिये विशाल और घने जंगल के ऐसे स्थानों पर खोला गया जहां पर दुर्याेधन के गुप्तचरों की दृष्टि ना पड़ सके। आपात स्थिती उत्पन्न होने की स्थिती में सैनिको और गुप्तचरों को भ्रमित करने के लिये सुरंग को ऐसे-ऐसे स्थानों पर खोला गया जिससे पांड़वो की सही दिशा के बारे में दुर्योधन को जानकारी ना मिल सके। लाक्षागृह में आग लगने के बाद पांड़व सुरंग से होते हुए बागपत स्थित ऋषि के आश्रम में आकर निकले। बताया जाता है कि जिस समय पांड़व सुरंग से बागपत की और आ रहे थे उस समय युधिष्ठिर के कहने पर भीम ने इस सुरंग को कई स्थानो से तोड़ दिया था, जिससे कि आपात स्थिती में दुर्योधन के सैनिक उन तक ना पहुॅंच पाये। पांड़व बागपत में जिस स्थान पर गुफा से आकर निकले, इस स्थान को वर्तमान में बाबा बुद्धराम की कुटी के नाम से जाना-जाता है। सिद्ध साधु-संतो और ऋषि-मुनियों की इस कर्म भूमि पर पूजा-अर्चना करने की विशेष महत्ता बतायी जाती है। वर्तमान में इस स्थान पर अत्यंत प्राचीन सिद्ध साधु-संतो का धूना उपस्थित है। धूना परिसर में दीवारों पर अत्यंत प्राचीन माता दुर्गा, भगवान भैरव, भगवान हनुमान और माता काली की प्रतिमायें विराजमान है। माता काली की प्रतिमा के निकट ही पांड़वो की प्राचीन गुफा देखी जा सकती है। इसके अलावा मन्दिर परिसर में आनन्द भैरव जी का भव्य मंदिर बना हुआ है, जिसमें भगवान हनुमान जी की मूर्ति विराजमान है। भगवान काल भैरव जी की रहस्यमयी शिला यहां पर विराजमान है। मंदिर परिसर में प्राचीन काल का कुआ देखा जा सकता है जिसके बारे में बताया जाता है कि यहां पर परियां नहाने आती है। कुएं के पास भगवान शिव परिवार का मंदिर कुछ वर्षो पहले ही निर्मित किया गया है। इस मंदिर परिसर में साधु-संतो की कई जीवित समाधियां बनी है। बताया जाता है कि सुरंग से निकलने के बाद पांड़व कुछ समय इसी स्थान पर रहे। जंगली जानवरों से बचने के लिये सुरंग के नीचे ही छोटी-छोटी कोठरियां विदुर के कारीगर द्वारा बनायी गयी। जिसमें पांड़व रहा करते थे। इस स्थान के निकट 600 से 900 मीटर की दूरी पर ही एक अत्यंत प्राचीन और आलौकिक शक्तियों से युक्त शिवलिंग था, जहां पर पांड़व और ऋषि-मुनि महादेव की पूजा-अर्चना किया करते थे। यह दिव्य शिवलिंग आज भी मौजूद है। वर्तमान में इस स्थान को पक्का घाट मन्दिर के नाम से जाना जाता है। बताया जाता है कि खाण्ड़व वन सैंकड़ो किलोमीटर के क्षेत्र में फैला हुआ था। वन में भयंकर राक्षस साधु-संतो और ऋषि-मुनीयों पर अत्याचार किया करते थे। अपनी मंजिल की और चलते हुए रास्ते में पांड़वों ने अनेकों भयंकर राक्षसों का संहार किया। भीम ने हिडिंब जैसे अत्याचारी राक्षस का वध किया और उसकी बहन हिडिंबा से विवाह किया जिससे उन्हें परमशक्तिशाली धटोत्कच नामक पुत्र की प्राप्ति हुई। इसके बाद घने वन में आगे बढ़ते हुए उन्होने बकासुर जैसे अनेको अत्याचारी राक्षसों का संहार किया और उसके बाद द्रौपदी स्वयंवर में भाग लिया। जहां से पांड़वो की जीवित रहने का राज खुला और उनकी हस्तिनापुर साम्राज्य में वापसी हुई।